रोज़ मर रही लाखों लावारिस गायों के लिए प्रतिशोध की भावना आपके मन में क्यों नहीं पनपती?

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के कई इलाकों में, 2012 के सरकारी आंकड़ों के हिसाब से भी देखें तो बारह हज़ार से अधिक मवेशी - जिनमें बछड़े और बैल समेत 'पवित्र' गाएं जिन्हें हम 'माता' का दर्जा देते हैं  - सड़कों, गलियों और मोहल्लों में कूड़े के ढेर में अपने लिए खाना तलाशते मिल जाएंगे. जबकि यहीं से 45 किलोमीटर दूर दादरी, उत्तर प्रदेश में हिन्दू अतिवादियों का एक समूह 58 वर्षीय मोहम्मद अख़लाक़ को पीट-पीटकर जान से मार डालता है, इसलिए कि उनके घर में कथित तौर पर गौमांस रखा और खाया जा रहा था.

ये वही उत्तर प्रदेश है जहां सबसे अधिक बारह लाख से ज़्यादा मवेशी सड़कों पर बिना किसी सुरक्षा के दयनीय हालत में जीते हैं. ये मवेशी सड़कों के किनारे भोजन की तलाश में कूड़े की ख़ाक छानते हैं और कभी प्लास्टिक तो कभी मेडिकल वेस्ट खाकर मरते हैं या हाइवे पर दुर्घटना का शिकार होकर जान गंवाते हैं. इन्हें लेकर गौ-माता के इन सपूतों में संवेदनशीलता क्यों नहीं है? क्या इन्हें केवल तभी फ़र्क पड़ता है जब मुस्लिम समुदाय पर गौमांस खाने का आरोप लगता है? 

बल्कि अगर अख़लाक़ के घर में गौमांस होता भी, और वो वाक़ई गौमांस खा भी रहे होते तब भी उत्तर प्रदेश के गौ-ह्त्या संबंधी क़ानून के मुताबिक़ वो किसी भी कोण से गुनाहगार नहीं होते. इस क़ानून में साफ़ ज़िक्र है कि अगर सील बंद डब्बे में गौ-मांस खाने के लिए ही सही बाहर से आयात किया गया हो तो आपको दोषी नहीं माना जाएगा.
सज़ा का प्रावधान केवल तब है अगर आप गौ-ह्त्या के दोषी पाए गए हैं और वह सज़ा भी दो साल का कारावास या हज़ार रुपये का जुर्माना  या दोनों है. 

इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि पुलिस ने अखलाक की फ्रिज में रखे गोश्त के टुकड़े को फोरेंसिक जांच के लिए भेजा है ताकि तस्दीक हो सके कि वह गौमांस था या नहीं. मान लेते हैं वे गौमांस ही खा रहे थे, पर ये साबित हो जाना यूपी पुलिस को इस जांच में किसी तरह की भी मदद कैसे करेगा?  

किसी भी लिहाज से ये बहस 'बीफ़ था या मटन' पर केन्द्रित नहीं होना चाहिए, लेकिन अब जब अख़लाक़ की ह्त्या की जा चुकी है तब भी भाजपा के नेता इस ह्त्या को समुचित ठहराने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं. भाजपा की पश्चिम यूपी यूनिट के उपाध्यक्ष श्रीचंद शर्मा ने अपने एक बयान में कहा है, "जब हम लोगों की भावनाएं आहात करते हैं तब ऐसी घटनाएं हो ही जाती हैं. ये कोई सामुदायिक दंगा नहीं था. हिन्दू समुदाय गाय को पूजता है और गौ-ह्त्या पर किस हिन्दू का खून नहीं खौलेगा?"
दादरी से भाजपा के विधायक नवाब सिंह नागर ने भी कमोबेश यही बात कही है.

काश ये भावनाएं इस बात पर भी आहात होती कि देश भर में, चाहे ग्रामीण इलाका हो या शहरी, 2012 में पशुपालन विभाग द्वारा करवाए गए आख़िरी सर्वेक्षण के मुताबिक़ 53 लाख से ज़्यादा मवेशी लावारिस सड़कों पर पड़े हैं. 

जहां अलग-अलग राज्य सरकारों ने गौ-ह्त्या के विरुद्ध अलग-अलग प्रावधान बना रखे हैं वहीं सड़क दुर्घटना, ज़हरीला पदार्थ खाने आदि से इनकी सुरक्षा के लिए न कोई क़ानून है, न किसी अतिवादी समूह को गायों के इस तरह मरने से कोई फ़र्क पड़ता है. 

देश के कुछ राज्यों में, गिने चुने एनजीओ के अलावा इन गायों के लिए चिंता जताते हुए न कभी किसी मंदिर को देखा गया है, न समय-समय गौ-ह्त्या के नाम पर बवाल करने वाले तथाकथित हिन्दू संगठनों को. 

भाजपा शासित राज्यों में, जो गौ-संरक्षण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं, बेसहारा मवेशियों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. यहाँ सिर्फ उन राज्यों के आंकड़े हैं जहां भाजपा की दखल राज्य सरकार में कम से कम दस सालों के लिए रही हो. और ये आंकड़े भी 2012 के हैं. तीन साल में हालात सुधरे होंगे, इसकी कोई गुंजाइश नहीं है. क्योंकि किसी भी सरकार ने इनके लिए कोई पहल कभी की ही नहीं.

मध्य प्रदेश - 4,37,910
गुजरात - 2,92,462
बिहार - 2,62,349
छतीसगढ़ - 1,38122
पंजाब - 1,00,991
आंध्र प्रदेश - 42,518

अब यह तय करने का काम जनता जनार्दन का है कि उनके लिए बड़ा मुद्दा क्या है? गौ-ह्त्या के नाम पर किसी का क़त्ल कर देना या जो गायें रोज़ सड़कों पर सूअरों की तरह कूड़े में अपना भोजन ढूंढ रही हैं उन्हें नया जीवन देना. आज गांधी जयंती है. गांधी भी गौ-ह्त्या के खिलाफ़ थे, लेकिन अगर आज वे होते तो उनकी चिंता का विषय क्या होता, लगे हाथ, यह भी सोचिएगा.

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